Friday, 24 October 2014

ऐसा भी बचपन 

बाजार घर सजे हैं मगर,
मैं झूठन बीनता हूँ,
त्यौहार रौशनी का है, पर मैं दिल में,
अँधेरा लिए फिरता हूँ,
लोगों का कूड़ा 
सोना है मेरे लिए ,
मैं दिवाली का नहीं,
दिवाली की अगली सुबह
का इंतज़ार करता हूँ...
शायद कूड़े में मिल जाये,
एक अधजली फुलझड़ी,
दो चार अनफूटे बम,
उन ही में ढूंढ लूंगा,
मैअपना बचपन...
शायद पड़ा हो
तय किया हुआ दस का एक नोट,
और कुछ नहीं तो,
मिल ही जायेंगे पटाखों के
खाली डब्बे...
पांच रूपये ज्यादा
कमाई हो जाये शायद...
शायद कोई देदे मिठाई के
कुछ टुकड़े...
मैं उन्ही से दिवाली के बाद
दिवाली मना लूंगा....
गौरव शर्मा

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Thanks for your invaluable perception.

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