...सभी कवियों को शायद अपनी सी लगे ये कविता...बात आप के हृदय तक पंहुचे तो प्रतिक्रिया अवश्य दीजियेगा...
ज़िन्दगी और कविता
वक़्त के हाथों में मानो सम्भली,
पुरानी डायरी जैसी है ज़िन्दगी,
लिहाफ वैसे तो धो-पोंछ साफ़ है,
पर थोड़ा झुर्रीदार, थोड़ा बदरंगी |
दो सौ और कुछ पन्ने भरे हुए हैं,
कवितायेँ काफी पूरी हैं,अधूरी भी,
खुशियां फुदक रहीं हैं यहाँ वहां,
दुःख-उदासी है,कहीं मजबूरी भी |
पूरी जो हैं, उनमे से,बहुत हैं जो,
मंजिल पर पहुँच ख़ुशी से ऐंठीं हैं,
पर कुछ रवाना कहीं को हुईं थीं,
पहुंचीं कहीं,मुंह लटकाये बैठी हैं |
कुछ मुखड़े ही हैं बस, बढ़े ही नहीं,
जाने मर गए या शब्द उनसे चिढ़ गए,
गरीब बेचारे कुछ, अंतरा नहीं जुटा पाये,
कुछ झग्लाडू से, स्याही से ही भिड़ गए |
लिखते-लिखते आंसू टपकें होंगे ,
दो पन्ने हैं, सूख के अकड़ गए हैं,
मिटे शब्दों के धब्बे हैं, धुंधलका है,
कुछ शब्द अपाहिज, आधे ही बचे हैं |
कुछ अंतरों पर वक़्त ने ही, शायद,
बड़ा सा लाल काँटा लगा रखा है,
जैसे लम्हों को ज़िन्दगी जी न पायी,
महंगे थे, बस हल्का-सा ही चखा है |
बच्चों जैसी तुकबंदी भी है कहीं कहीं,
हंसी आती है पड़कर, फिर शर्म आ जाती है,
चार-छह मुक्तक हैं, अनभेजी चिठ्ठी जैसे,
क्या लिखा है , ज़िन्दगी बूझ न पाती है |
कुछ सुस्त मिसरे, भोन्दु से मतले हैं,
गीदड़ से शेर हैं, अधमरी एक ग़ज़ल है,
गीत लिखने की कोशिश दम तोड़ गयी,
कहीं गुबार सा निकले हर्फों की दलदल है |
अब पौनी डायरी भर चुकी है, ऐसे ही,
ज़िन्दगी बाकी पन्ने संभल कर भरती है,
ज्यादातर तो, आधी-अधूरी छूटी हैं जो,
वही कवितायेँ पूरा करने की कोशिश करती है |
ज़िन्दगी और कविता
वक़्त के हाथों में मानो सम्भली,
पुरानी डायरी जैसी है ज़िन्दगी,
लिहाफ वैसे तो धो-पोंछ साफ़ है,
पर थोड़ा झुर्रीदार, थोड़ा बदरंगी |
दो सौ और कुछ पन्ने भरे हुए हैं,
कवितायेँ काफी पूरी हैं,अधूरी भी,
खुशियां फुदक रहीं हैं यहाँ वहां,
दुःख-उदासी है,कहीं मजबूरी भी |
पूरी जो हैं, उनमे से,बहुत हैं जो,
मंजिल पर पहुँच ख़ुशी से ऐंठीं हैं,
पर कुछ रवाना कहीं को हुईं थीं,
पहुंचीं कहीं,मुंह लटकाये बैठी हैं |
कुछ मुखड़े ही हैं बस, बढ़े ही नहीं,
जाने मर गए या शब्द उनसे चिढ़ गए,
गरीब बेचारे कुछ, अंतरा नहीं जुटा पाये,
कुछ झग्लाडू से, स्याही से ही भिड़ गए |
लिखते-लिखते आंसू टपकें होंगे ,
दो पन्ने हैं, सूख के अकड़ गए हैं,
मिटे शब्दों के धब्बे हैं, धुंधलका है,
कुछ शब्द अपाहिज, आधे ही बचे हैं |
कुछ अंतरों पर वक़्त ने ही, शायद,
बड़ा सा लाल काँटा लगा रखा है,
जैसे लम्हों को ज़िन्दगी जी न पायी,
महंगे थे, बस हल्का-सा ही चखा है |
बच्चों जैसी तुकबंदी भी है कहीं कहीं,
हंसी आती है पड़कर, फिर शर्म आ जाती है,
चार-छह मुक्तक हैं, अनभेजी चिठ्ठी जैसे,
क्या लिखा है , ज़िन्दगी बूझ न पाती है |
कुछ सुस्त मिसरे, भोन्दु से मतले हैं,
गीदड़ से शेर हैं, अधमरी एक ग़ज़ल है,
गीत लिखने की कोशिश दम तोड़ गयी,
कहीं गुबार सा निकले हर्फों की दलदल है |
अब पौनी डायरी भर चुकी है, ऐसे ही,
ज़िन्दगी बाकी पन्ने संभल कर भरती है,
ज्यादातर तो, आधी-अधूरी छूटी हैं जो,
वही कवितायेँ पूरा करने की कोशिश करती है |
Very true.....
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