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| राधे राधे |
श्रीकृष्ण चले परिक्रमा कू
संध्या दुपहरी के द्वार खटखटा रही थी। बृज की रज आकाश को अपनी आभा में डुबो कर केसरिया करने को आतुर हो चली थी। कदम्ब की पत्तियां एक दूसरे से सट गई थीं क्योंकि उसकी छाया तले श्रीकृष्ण बैठे थे। उनके होंठ बंसी के कानों को निहाल कर रहे थे। तान ऐसी थी मानो वृंदावन की हर डाल, हर पत्ता सुनने को रुक गया हो।
राधा जी पास बैठी थीं—नेत्र अर्धमुदित, देह स्थिर, मन पूर्णतः कृष्ण में लीन।
तान थमी।
कृष्ण ने सहज भाव से कहा—
“श्रीजी, कल तो मैं गिरिराज जी की परिक्रमा लगावे जाउंगो।”
राधा जी ने नेत्र खोले। मुस्कान में लाज भी थी और अधिकार
भी। “बृज बिना परिक्रमा कैसी?”
कृष्ण हँसे—“बृज ही तो परिक्रमा है, श्रीजी।”
“और मैं?” राधा जी ने भौहें सिकोड़ कर कहा। उत्तर तो उन्हें पता ही था।
संध्या को मधुमंगल, सुबाहु, भद्र, सुभद्र, वरूथप, श्रीदामा आदि ने सारे नंदगांव को परिक्रमा का संदेश दे दिया। बरसाने में ललिता, विशाखा, इंदुलता हरकारिन बन गईं।
बृज की गृहणियों ने छप्पन पकवान बनाने आरंभ कर दिए।
सारे बृज ने रात से गुहार लगाई, “आज जल्दी गुजर जाओ तुम”। सूरज देवता सोए ही नहीं। बृजवासी इतने उतावले थे कि सूर्यदेव अपनी पहली किरण भेजते उससे पहले ही नन्द के द्वार पर पहुंच कर कान्हा को आवाज़ लगा दी।
सब गोवर्धन की ओर बढ़े तो देखा सारी गैयां और ग्वाले भी पीछे-पीछे आ रहे हैं।
परिक्रमा आरंभ हुई। राधा जी, श्रीकृष्ण और उनकी टोली सबसे आगे। फिर गाय और ग्वाले। उनके पीछे बृजवासी।
दानघाटी पर पहुँचते ही बृज की चंचलता जाग उठी। गोपियाँ श्रीकृष्ण का मार्ग रोककर खड़ी हो गईं।
यह वही स्थान था जहाँ प्रेम नियम बन जाता है और नियम हँसी में बदल जाते हैं।
कृष्ण ने यहाँ गोपियों को दान में केवल माखन नहीं दिया—अपनी चितवन, अपनी मुस्कान, और बृज की आलौकिकता दे दी।
हरिदेव मंदिर की घंटियाँ धीमे-धीमे बज रही थीं। यहाँ भक्ति का स्वर ऊँचा नहीं, गहरा होता है। गोप-ग्वालों ने भजन छेड़ा, जिसमें न राग की चिंता थी, न ताल की, केवल समर्पण था। गैया अपनी गर्दन मटका कर घंटियों की झनकार उनके स्वर में मिला रही थीं।
राधा जी की दृष्टि में भक्ति और प्रेम का भेद ही मिट गया।
भजनों पर थिरकते हुए जतीपुरा आ गया। यह वह स्थान है जहाँ पग पड़ते ही जीवन धन्य हो जाता है। मन से सारे संताप निकल भागते हैं। रोम-रोम रोमांच से भर जाता है। भाव ऐसा बनता है जैसे सर्वस्व प्राप्त हो गया हो। यहाँ चेतन और ज्ञानी भी पागलों सा व्यवहार करने लगते हैं। जतीपुरा में सेवा मौन होकर भी पूर्ण हो जाती है। यहाँ की मिट्टी में त्याग बसा है, तप का स्पर्श है।
कृष्ण ने गिरिराज जी की ओर देखकर कहा, “जो शरण में आए, उसका भार गिरिराज जी स्वयं उठा लेते हैं।”
राधा जी समझ गईं—यह वाक्य भक्त के लिए भी है।
आगे बढ़कर गिरिराज जी के मुखारविंद पर पहुँचे। यहाँ गिरिराज पर्वत का स्वरूप ऐसा था मानो स्वयं श्रीहरि का मुख हो—शांत, करुण, स्थिर।
राधा जी ने यहाँ मौन धारण कर लिया।
श्रीकृष्ण ने कहा—“श्रीजी, गिरिराज जी बोले ना हैं पर सुनें सब हैं।”
“जानूं हूँ मैं। कह दियो मन ही मन और गिरिराज जी ने सुन भी लियो है”।
भोग पधराया गया। गिरिराज जी ने बड़े चाव से अरोगा।
एक-एक करके सारे ब्रजवासियों ने गिरिराज जी को ढोग दिया।
गैया तलहटी का प्रसाद अरोगने लगीं।
पग आगे बढ़ाए तो मानो चिपक गए हों। जो आए थे उनका जाने का मन नहीं था, जिनके पास आए थे, उनका भेजने का मन नहीं था।
जैसे तैसे गिरिराज जी की आज्ञा मिली। अब सुरभि कुंड की छटा ने सबको मोह लिया। सबकी स्मृति में इंद्रदेव के मानमर्दन की पुनरावृत्ति हो गई।
गोविंद कुंड का जल अत्यंत शीतल था। यहाँ थके चरण विश्राम पाते हैं और थका मन विश्वास। राधा जी ने जल से कृष्ण के चरण पखारे और कृष्ण ने राधा जी के। बृजवासियों को स्पष्ट संदेश था ‘सेवा ही सबसे ऊँची साधना है’।
फिर आया श्याम कुंड।
यहाँ प्रेम गाढ़ा हो जाता है, शब्द छोटे पड़ जाते हैं। हवा की ताल पर नृत्य करते जल में आकाश भी राधा-नाम सा लगता है।
कृष्ण ने धीमे स्वर में कहा—
“यह कुंड न है श्रीजी, मेरो जो प्रेम है ना, वा की पराकाष्ठा है।”
राधा जी के नेत्रों में हर्ष की आद्रता छलक आई।
पास ही था राधा कुंड। “जाओ, कान्हा, एक बार और डुबकी लगा लो”।
राधा जी का आदेश हुआ तो श्रीकृष्ण ने पल भर की भी देर ना लगाई। अब श्रीजी के कपोलों पर अश्रु धारा बह निकली थी। कृष्ण ने कुंड में तैरते हुए अश्रुओं को कुंड में गिरने का संकेत कर दिया। राधा जी का मुख स्वत: ही आगे की ओर झुक गया। अब प्रत्येक बृजवासी कुंड में स्नान करना चाहता था। कुछ ने सारे शरीर पर कुंड के जल से छींट लगा लिए। लोटों में जल लेकर लोग स्वयं पर डाल रहे थे मानो जानते हों, ऐसा करने से जीते जी मोक्ष मिल जाएगा।
राधाकुंड और श्यामकुंड एक-दूसरे को देख कर मुस्कुरा रहे थे। दोनों अलग होकर भी अभिन्न थे। यहाँ राधा-कृष्ण का द्वैत मिट जाता है। बृज जानता है—जहाँ राधा हैं, वहीं श्याम हैं।
कान वाले गिरिराज जी को अपनी-अपनी मनोकामना की पोटली थमा कर सब अंत में पहुँच गए मानसी गंगा।
कृष्ण के आगमन की खबर सुन ना जाने कौन मानसी गंगा के घाटों को रंग बिरंगे फूलों से सजा गया था।
जल शांत था, पर उसमें बृज की सारी कथाएँ तैर रही थीं। उसमें समाहित बृज का यश सबको निहाल करने को तैयार था।
यहाँ परिक्रमा पूर्ण हो जाती है, पर यात्रा नहीं रुकती। मन और भीतर की ओर चल पड़ता है।
वापसी की यात्रा आरंभ हुई। संध्या अनमने मन से उतर आई थी। कृष्ण ने बंसी उठाई। तान गूँजी।
राधा जी फिर मंत्रमुग्ध हो गईं। बृज की रज ने सब ढक लिया— कथा को भी, पात्रों को भी— बस लीला रह गई।
एक प्रश्न श्रीजी के मन में था। “अचानक परिक्रमा करवे की क्यों सूझी, कान्हा?”
श्रीकृष्ण के अधरों पर मुस्कान थिरक गई। “गिरिराज जी ने कही मोसू, आपके दर्शन करावे कू”।
श्रीकृष्ण फिर से बंसी बजाने लगे। राधा जी ने नेत्र बंद किए और गिरिराज जी को धन्यवाद कहने लगीं।
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©GauravSharma
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Bahut shaandar
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