Tuesday, 20 May 2014

सवाल.....

फिर  वही अकेली रात  हैरान  है ....
मेरी  टकटकी  से शर्मसार छत सिमट रही है ...
मेरी करवटें  गिन  रही  है  चादर  की  सलवटें ....
तकिया भी मेरी बैचेनी से परेशान है .....
खुली हुयी आँखों में एक सवाल  है ...
एक टूटा हुआ सपना है ...
और सपने में तुम हो ....
मेरी कल्पना तुमसे पूछती है ...
क्यों तुमने मुझे अपना नहीं बनाया ...
मेरी कल्पना तुम्हारी जुबान से  बोलती है
'तुम इस लायक ही नहीं थे'
फिर शुरू होता  है तर्क
मेरे हृदय और मेरी कल्पना का |
दिल कहता है शायद ये सच भी हो
पर वो कभी नहीं बोलेगी
कल्पना हार कर फिर पूछती है
क्या तुम्हे मुझसे प्यार  है ...
हाँ नहीं के शोर में आँखें थक कर सो जाती हैं
कल फिर रात आएगी ...सवाल  दोहरायेगी ..

No comments:

Post a Comment

Thanks for your invaluable perception.

MATHEMATICS, EGO & ME

MATHEMATICS, EGO & ME   It was 2006, six years after I had given up my job and was content teaching at my own institute. I was aware th...