Thursday, 7 August 2014

 'मैं हूँ'

ज़िन्दगी के कान में हवा,
न जाने क्या फुसफुसा के गई ,
साँझ ने मुँह छुपाया घुटनों में,
और बेतहाशा सिसकने लगी |


मेरे कहकहों से अब तक,
सहमी सहमी रहती थी उदासी,
अचानक तमतमा के उठी,
और हर तरफ बिखर गई |
आसमां ने भेज दी यूँ ही,
दो बूँदें मुझे समझाने को,
खामोश रहा ठंडा झोंका.
शायद आया था बहलाने को |


ठहरी हुयी थी अब तक,
लौ दिए की हिलने लगी |
सूरज ने समेट ली रौशनी,
स्याही काली बिखरने लगी |


साज़िशों की हंसी हँसता था,
तिनका तिनका कोना कोना,
तेरा मुस्काता अक्स लेकर
तब चमक रहा था आईना |


तुम्हारी लटें उड़ीं,आँखें झपकी,
'मैं हूँ' तुम बुद्बुदाईं |
सिमट कर छिप गई उदासी,
ज़िन्दगी झट से लौट आयी |

No comments:

Post a Comment

Thanks for your invaluable perception.

  कृष्ण - यशोदा         "मैया में बढ़ो हो गयो"   कान्हा क्या आए, नन्द भवन मंदिर सा हो गया था। मंद मंद घंटियों के आवाज़ आती रहती थी...