Monday, 30 June 2014

              रात का पैगाम

रात आँखों से न जाने क्या क्या बतियाती रही,
फलक से तोड़ लाई थी सपने, वही दिखलाती रही|
सुबह जब मैं जगा तो आँखें बागी हो चुकी थी,
देर तक सपने सच करने को मुझे उकसाती रहीं |

एक चेहरा, एक ख्वाहिश,और कुचले हुए ज़ज़्बात,
अतीत याद दिलाकर मुझे चुनौती दे रही थी रात |
हसरतें जी सकूँ मेरा वो वक़्त तो बीत चुका है ,
किन्तु खुद को साबित करूँ मैं, यही समझाती रही |
रात आँखों से न जाने क्या क्या बतियाती रही|

टूटे सपनों पर रोना आंसुओं का अपमान होता है |
नए सपने देखो,वक़्त बहुत बलवान होता है |
भाग्य को दिखाना है गलती वो भी करता है,
बुझी उमंगों की लौ फिर जलाने को मनाती रही |
रात आँखों से न जाने क्या क्या बतियाती रही|

देवालय में पत्थर को देवता मान पूजते हैं सब |
तीर्थों में, मंदिरों में, भगवान खोजते हैं सब |
वो नहीं मिलता तो आस्था  टूट नहीं जाती ,
प्यार का अर्थ उदाहरणों में मुझे बताती रही |
रात आँखों से न जाने क्या क्या बतियाती रही |

मायूस ज़िन्दगी में ख्वाहिशों की बारिश होने दो |
बढ़े चलो, हों कितनी ही, साज़िश चाहे होने दो |
जो न मिला किस्मत से, उसे ताकत बना लो तुम ,
जिंदगी जीने का  अजब फलसफा सिखाती रही |
रात आँखों से न जाने क्या क्या बतियाती रही|


           गौरव शर्मा

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