अमिट प्रेम...
भावनाएं तर्कों के वशीभूत नहीं होतीं,
अरु परिस्थितियों के अधीन नहीं होतीं |
समय के थपेड़ों ने प्रयास अनेक किये मगर,
प्रेम की डोरियाँ इतनी महीन नहीं होतीं |
उत्तरदायित्वों के पहाड़ बड़े सशक्त होते हैं,
पेट की आग, अपनों की आस, बंधन होते हैं |
तेरे मेरे बीच में सब बाधा बनते गए मगर,
मन में बसी छवि को कहाँ निकाल पाते हैं |
समय बीतता रहा, समय बीत गया,
तुम कुछ हो गयीं, मैं कुछ हो गया |
भाग्य के काँटों में उलझ गया जीवन मगर,
हमारी आत्माओं का सम्बन्ध प्रबल हो गया |
अनुकूलता में निराशा हावी हो जाती थी,
असफलता की वेदना में साँसें करहाती थीं |
सब कुछ धुंधला जाता, मैं हार जाता था मगर,
तुम्हारी एक आवाज़ मुझे आगे बड़ा जाती थी |
आँधियाँ मंद होती गयीं, जीवन निखरता गया,
आयु में वर्ष जुड़ते रहे, अनुभव भी बढ़ता गया |
विवेक समझ गया, हमारे जीवन समान्तर रेखाएं हैं,
नए रिश्तों की कड़ियों में वो प्यार भी जुड़ता गया |
हृदय सलेट होता, तो मिटाकर पुनः लिख लिया जाता,
स्मृतियों के अवशेषों को कहीं दूर फ़ेंक दिया जाता |
समय चलता रहा, सुख दुःख आते जाते रहे मगर,
तुम्हारी अनुभूति को मिटाता भी तो कैसे मिटा पाता |
मेरी कल्पनाओं में मेरी ईष्ट बन कईं थीं तुम,
अकेला दीखता था, पर हमेशा मेरे पास होती थीं तुम |
मैं बांटता रहा तुम संग अपने सुख-दुःख सब कुछ,
जैसे भगवान नहीं होता, वैसे ही नहीं होतीं थीं तुम |
गौरव शर्मा
भावनाएं तर्कों के वशीभूत नहीं होतीं,
अरु परिस्थितियों के अधीन नहीं होतीं |
समय के थपेड़ों ने प्रयास अनेक किये मगर,
प्रेम की डोरियाँ इतनी महीन नहीं होतीं |
उत्तरदायित्वों के पहाड़ बड़े सशक्त होते हैं,
पेट की आग, अपनों की आस, बंधन होते हैं |
तेरे मेरे बीच में सब बाधा बनते गए मगर,
मन में बसी छवि को कहाँ निकाल पाते हैं |
समय बीतता रहा, समय बीत गया,
तुम कुछ हो गयीं, मैं कुछ हो गया |
भाग्य के काँटों में उलझ गया जीवन मगर,
हमारी आत्माओं का सम्बन्ध प्रबल हो गया |
अनुकूलता में निराशा हावी हो जाती थी,
असफलता की वेदना में साँसें करहाती थीं |
सब कुछ धुंधला जाता, मैं हार जाता था मगर,
तुम्हारी एक आवाज़ मुझे आगे बड़ा जाती थी |
आँधियाँ मंद होती गयीं, जीवन निखरता गया,
आयु में वर्ष जुड़ते रहे, अनुभव भी बढ़ता गया |
विवेक समझ गया, हमारे जीवन समान्तर रेखाएं हैं,
नए रिश्तों की कड़ियों में वो प्यार भी जुड़ता गया |
हृदय सलेट होता, तो मिटाकर पुनः लिख लिया जाता,
स्मृतियों के अवशेषों को कहीं दूर फ़ेंक दिया जाता |
समय चलता रहा, सुख दुःख आते जाते रहे मगर,
तुम्हारी अनुभूति को मिटाता भी तो कैसे मिटा पाता |
मेरी कल्पनाओं में मेरी ईष्ट बन कईं थीं तुम,
अकेला दीखता था, पर हमेशा मेरे पास होती थीं तुम |
मैं बांटता रहा तुम संग अपने सुख-दुःख सब कुछ,
जैसे भगवान नहीं होता, वैसे ही नहीं होतीं थीं तुम |
गौरव शर्मा
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Thanks for your invaluable perception.