Friday, 25 July 2014

कविता यूँ ही नहीं बन पाती

यूँ ही कभी भी कलम कागज़ लेकर बैठ जाऊं,
और स्वतः ही बह निकले एक अद्भुत कविता,
ऐसा हो नहीं पाता |
कितना भी प्रयास कर लूँ,
किन्तु अब भी शब्द कविता के दास हैं,
न मेरे, न ही शब्दों की दास है मेरी कविता |

इधर उधर से शब्दों को बीन बीन कर,
तुकबंदी के गारे में चिन-चिन कर,
कहाँ कविता जन्म ले पाती है ?

शब्द तो पाषाण होते हैं,
भावनाओं को राम नाम की तरह,
लिखा जाता है जब उन पर,
तभी वह हृदय-सागर में तैर पाते हैं |
और हमारे उद्गारों और पाठकों के बीच,
समुन्द्र-सेतु सा मार्ग बना पाते हैं |

मोती की तरह चुनना होता है शब्दों को,
फिर पिरोना होता है संवेदनाओं के धागे में,
तभी तो हृदय-स्पर्शी कविता
जन्म ले पाती है |

                           गौरव शर्मा

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